Definitional Dictionary of Indian Philosophy (Hindi) (CSTT)
Commission for Scientific and Technical Terminology (CSTT)
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अ
अनुत्तर परमशिव। पर प्रकाश। पर तत्त्व। शिव शक्ति के सामरस्य भाव को द्योतित करने वाला वर्ण। अकुल का अभिव्यंजक वर्ण। पृथ्वी से लेकर शक्ति पर्यंत संपूर्ण कुल को प्रथन करने वाली कौलिकी नामक पराशक्ति से अभिन्न अकुल नामक अनुत्तर तत्त्व को अभिव्यक्त करने वाला वर्ण। शिव से सर्वथा अभिन्न स्वभाव वाली अनुत्तरा एवं कुलस्वरूपा शक्ति से युक्त शरीर वाले परमशिव को अभिव्यक्त करने वाला आद्यवर्ण। परावाणी में परमेश्वर का नाम। मातृका का पहला वर्ण। (तं, सा. पृ . 12, पटलत्रि.वि., पृ. 153)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अं
अनुत्तरशक्ति से लेकर परिपूर्ण क्रियाशक्ति पर्यंत समस्त अंतः विमर्शन के पूरा होने पर जब अंतः विमर्श में आने वाली भिन्न भिन्न चौदह भूमिकाओं को द्योतित करने वाले अ से लेकर औ पर्यंत चौद्ह वर्ण अभिव्यक्त हो जाते हैं तो उस अवस्था में पहुँचने पर जब अभी बहिः सृष्टि होने वाली ही होती है तो परमेश्वर अपनी इच्छा द्वारा अपने पर आरूढ़ हुई उस समस्त अंतःसृष्टि का स्वरूपस्थतया विमर्शन करता है। उसके इस प्रकार के विमर्श को मातृका का पंद्रहवाँ वर्ण अं द्योतित करता है। परमेश्वर की अत्यंत आनंदाप्लावित अवस्था को अं परामर्श कहते हैं। इस अवस्था को द्योतित करने वाले वर्ण को भी अं कहते हैं। (तन्त्र सार पृ. 14,15; तन्त्रालोक आ. 3-110,111)। साधक योगी को भी अं की उपासना के द्वारा उसी आनंद से आप्लावित स्वस्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अः
विसर्ग। विसर्ग का अर्थ होता है सृष्टि। परमेश्वर अपनी परिपूर्ण पारमेश्वरी शक्ति के विमर्शन के द्वारा अपने भीतर स्वात्मतया सतत विद्यमान स्रष्टव्य जगत् को बाहर इदंता के रूप में अर्थात् स्फुट-प्रमेयतया प्रकट करने के प्रति जब पूरी तरह से उन्मुख हो जाता है, तो विश्वसृष्टि के प्रति उसकी इस स्वाभाविक उन्मुखता को अभिव्यक्त करने वाले मातृका वर्ण को विसर्ग कहते हैं। उसी का शुद्ध स्वरूप अः है। सारी बाह्य सृष्टि ह वर्ण पर पूरी हो जाती हैं। उसका आरंभ अः से होता है। अतः अः को ही विसर्ग (सृष्टि) कहते हैं। इसीलिए इसे अर्धहकार भी कहते हैं। उच्चारण भी इन दोनों वर्णो का एक जैसा ही होता है। (तन्त्र सार पृ. 15)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अकर्म
कर्म, विकर्म और अकर्म ये तीनों ही शब्द परस्पर सम्बन्धित अर्थ के बोधक हैं। यहाँ कर्म शब्द से श्रुतिविहित वैदिक कर्म विवक्षित है। श्रुति द्वारा निबिद्ध कर्म विकर्म है। श्रुतिविहित कर्म का विच्छेद अकर्म है। कर्म का बोधक श्रुतिवाक्य सीधे कर्म विधायक होता है। किन्तु अकर्म का बोधक श्रुतिवाक्य साक्षात् कर्म का विधायक न होने पर भी उस कर्म का विच्छेद करने वाले व्यक्ति की निन्दा द्वारा परोक्ष रूप से उस कर्म का विधायक होता है (अ.भा.पृ. 850)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
अकल
पूर्ण अभेद की भूमिका पर ठहरने वाले प्राणी। शिव तत्त्व और शक्ति तत्त्व में ठहरने वाले सर्वथा शुद्ध एवं निर्मल प्राणी। शिव तत्त्व में ठहरने वाले अकल प्राणी शांभव प्राणी तथा शक्ति तत्त्व में ठहरने वाले अकल प्राणी शाक्त प्राणी कहलाते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 74,75)। शांभव प्राणियों में प्रकाशरूपता का अधिक चमत्कार रहता है और शाक्त प्राणियों में विमर्शरूपता का। ये दोनों प्रकार के प्राणी अपने आपको शुद्ध, असीम पारमैश्वर्य से युक्त एवं परिपूर्ण संविद्रूप ही समझते हैं जहाँ परिपूर्ण ‘अहं’ का ही स्फुट आभास होता है तथा ‘इदं’ अंश ‘अहं’ में ही सर्वथा विलीन होकर रहता है तथा ‘अहं’ के ही रूप में रहता है।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अकलुषमति
कालुष्य रहित बुद्धि वाला।
यहाँ पर कालुष्य भावों अथवा विचारों से संबंधित कलुषता है, अर्थात् किसी कलुषित (मलिन) वस्तु या व्यक्ति को देखने से अथवा उसके स्पर्श से बुद्धि द्वेष, इच्छा या क्रोध जैसी कलुषित भावना उत्पन्न होने पर बुद्धि कलुषित हो जाती है। पाशुपत संन्यासी का उद्देश्य अकलुषमति होना होता है। अतएव उसे उस प्रयोजन के लिए द्वेष, इच्छा व क्रोध रूपी कालुष्य को उत्पन्न करने वाली कलुषित वस्तुओं को नहीं देखना होता है।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
अकल्यकाल
काल का वह अति सूक्ष्म रूप जिसकी कलना का स्फुट आभास नहीं होता है। ऐसा काल जिसमें क्रम होने पर भी तीव्रतर वेग होने के कारण उसकी क्रमरूपता का किसी भी प्रकार से आभास नहीं हो पाता है। सुषुप्ति एवं तुरीया अवस्थाओं में काल की गति तीव्रतर होती है यद्यपि वहाँ भी क्रम रहता ही है परंतु उस क्रमरूपता का स्फुट आभास नहीं होता है। उनमें से तुरीया में स्थित सूक्ष्मतर क्रमरूपता को अकल्यकाल कहते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 49, 56)। शास्त्रों में इस काल की गणना शुद्ध विद्या से सदाशिव तत्त्व तक की गई है।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अकालकलित
परमशिव का परस्वरूप – जहाँ किसी भी प्रकार के काल की स्थिति नहीं होती है। काल के न होने के कारण वहाँ किसी भी प्रकार की क्रमरूपता भी विद्यमान नहीं रहती है, क्योंकि उस संविद्रूप पर प्रकाश में प्रमाता, प्रमाण तथा प्रमेय की त्रिपुटी समरस होकर प्रकाश के ही रूप में विद्यमान रहती है। (त. आत्मविलास, पृ. 134)। काल की कलना वहाँ होती है जहाँ क्रमरूपता का आभास हो। क्रमरूपता द्वैत के ही क्षेत्र में संभव हो सकती है। अकल्यकाल की कलना भी भेदाभेद के क्षेत्र में ही होती है, अभेद के क्षेत्र में नहीं। अतः अभेदमय परमशिव अकालकलित है। देखिए अकल्यकाल।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अकुलकुण्डलिनी
योगिनीह्रदय की अमृतानन्द योगी कृत दीपिका टीका तथा भास्कर राय कृत सेतुबन्ध टीका (पृ. 38-43) में उद्धृत स्वच्छन्दसंग्रह नामक अद्यावधि अनुपलब्ध ग्रंथ के अनुसार मानव लिंग शरीर में सुषुम्णा नाड़ी के सहारे 32 पद्मों की स्थिति मानी गई है। सबसे नीचे और सबसे ऊपर दो सहस्त्रार पद्म अवस्थित हैं। नीचे अकुल स्थान स्थित अरुण वर्ण का सहस्रार पद्म ऊर्ध्वमुख तथा ऊपर ब्रह्मरन्ध्र स्थित श्वेतवर्ण सहस्रार पद्म अधोमुख है। इनमें से अधःसहस्रार को कुल कुण्डलिनी तथा ऊर्ध्व सहस्रार को अकुल कुण्डलिनी कहा गया है। अकुल कुण्डलिनी प्रकाशात्मक अकार स्वरूपा मानी जाती है।
Darshana : शाक्त दर्शन
अकुलशिव
कुलार्णव तन्त्र (17/27) में अकुल शब्द का अर्थ शिव तथा कुल शब्द का अर्थ शक्ति किया गया है। तन्त्रालोक (3-67) और उसकी व्याख्या में भी यही विषय प्रतिपादित है। किन्तु यहाँ शक्ति को कौलिकी कहा गया है। जिस परम तत्त्व से विविध विचित्रताओं से परिपूर्ण यह सारा जगत उत्पन्न होता है और उसी में लीन भी हो जाता है, वह परम तत्त्व शिव और शक्ति से परे है। उसी परम तत्त्व से अकुल शिव और कुल शक्ति की सृष्टि होती है। इस कौलिकी शक्ति से अकुल शिव कभी जुदा नहीं रहता। शिव को शाक्त दर्शन में अनुत्तर तत्त्व माना गया है। अनुत्तर शब्द अकार का भी नाम है। यह अकार ऐतरेय आरण्यक (2/3/6) के अनुसार समस्त वाङ्मय का जनक है। भगवद्गीता (10/32) में अपनी उत्कृष्ट विभूतियों का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि अक्षरों में मैं अकार हूँ। इसीलिये अकार को अकुल अक्षर भी कहा जाता है। अनेक ग्रंथों में उद्धृत, किन्तु अद्यावधि अनुपलब्ध ग्रंथ संकेतपद्धति में अकार को प्रकाश और परम शिव का स्वरूप कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रकाशात्मक अकुल शिव अकुल अकार के रूप में अभिव्यक्त होकर इस विविध विचित्रतामय जगत की सृष्टि करता है। महार्थमंजरी की परिमल व्याख्या (पृ. 89) में महेश्वरानंद ने कुल, कौल और अकुल विभाग की चर्चा की है। नित्याषोडशिकार्णव की अर्थरत्नावली टीका के लेखक विद्यानन्द ने अकुल, कुल और कुलाकुल (पृ. 67) तथा अकुल, कुल, कुलाकुल, कौल और शुद्धकौल (पृ. 74) नामक भेदों का उल्लेख किया है। ‘कौल मत’ शब्द के विवरण में इनकी चर्चा की गई है।
Darshana : शाक्त दर्शन
अकुशलकर्म
व्यासभाष्य में कर्म कुशल और अकुशल दो प्रकार के कहे गए हैं (1/24)। योगानुकूल कर्म कुशल हैं तथा संसार में बाँधने वाले कर्म अकुशल हैं। धर्मकर्म कुशल हैं, अधर्मकर्म अकुशल हैं – यह भी कहा जा सकता है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अक्रोध
क्रोध की अनुपस्थिति।
पाशुपत योग के अनुसार अक्रोध दस यमों में से एक प्रकार है। (पा. सू. को. भा. पृ. 15)। क्रोध चार प्रकार का कहा गया है – भावलक्षणक्रोध, कर्मलक्षणक्रोध, वैकल्यकर क्रोध तथा उद्वेगकर क्रोध। भावलक्षण क्रोध में असूया, द्वेष, मद, मान, मात्सर्य आदि मानसिक भाव उत्थित होते हैं।
कर्मलक्षणक्रोध में कलह, वैर, झगड़ा आदि कलहपूर्ण कर्म उत्पन्न होते हैं। वैकल्यकारक क्रोध में हाथ, पैर आदि अंगों पर प्रहार होने से उनकी क्षति हेती है तथा उद्वेगकारक क्रोध में अपनी अथवा शत्रु की प्राणहानि होती है जो उद्वेग को जन्म देती है। पाशुपत दर्शन में इस चार प्रकार के क्रोध का पूर्णत: निषेध किया गया है। क्रोध को मनुष्य का बहुत बड़ा शत्रु माना गया है। जिसके कारण व्यक्ति की हर एक बात तथा हर एक कृत्य निष्फल हो जाते हैं। अतः अक्रोध नामक यम को पाशुपत दर्शन में अवश्य पालनीय माना गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ 25-27)
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
अक्लिष्टवृत्ति
चित्त की वृत्ति (चित्त-सत्त्व का परिणाम) जब अविद्यादि-क्लेशपूर्वक उदित नहीं होती, तब वह अक्लिष्टा कहलाती है। जब कोई वृत्ति क्लेशपूर्वक उदित नहीं होती, तब वह क्लेशमय वृत्ति को उत्पन्न भी नहीं करती; अतः उससे क्लेशमूलक कर्माशय का निर्माण भी नहीं होता। यह सत्त्वप्रधान अक्लिष्टवृत्ति अपवर्ग की सहायक होती है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अक्षय
पाशुयोगी का एक लक्षण।
पाशुपत योगी क्षय को प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् जगत् के प्रलय के समय भी उसका क्षय नहीं होता है, क्योंकि शिवतुल्य बनने के कारण उसका महेश्वर (शिव) के साथ परिपूर्ण ताद्रूप्य होता है। स्थूल शरीर का क्षय तो अवश्यम्भावी है, परंतु युक्त साधक की आत्मा पूर्ण ऐश्वर्य की प्राप्ति हो जाने पर महेश्वर के साथ तुल्य रूप होकर चमकती रहती है। (पा. सू. कौ, भा. पृ. 47, 50)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
अक्षयत्व
पाशुपत सिद्धि का लक्षण।
महेश्वर के अपार ऐश्वर्य के साथ परिपूर्ण व नित्य ताद्रूप्य अक्षयत्व कहलाता है। (ऐश्वर्येण नित्य संबंधित्वमक्षयत्वम् – ग . का. टी. पृ. 10)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
अक्षर बिंदु
रत्नत्रय (श्लो. 22, 39, 53) प्रभृति ग्रंथों में बताया गया है कि जिस प्रकार बिंदु क्षुब्ध होकर एक ओर शुद्ध देह, इन्द्रिय, भोग और भुवन के रूप में परिणत होता है, उसी प्रकार दूसरी ओर यही शब्द की भी उत्पत्ति करता है। शब्द सूक्ष्म नाद, अक्षर बिंदु और वर्ण के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें अक्षर बिंदु सूक्ष्म नाद का कार्य है। शास्त्रों में मयूराण्डरस न्याय से इसको समझाया गया है। जिस प्रकार मयूर के अण्डे के रस में उसके शरीर और पंख के तरह-तरह के रंग अभिन्न भाव से अव्यक्त रूप में रहते हैं, उसी तरह से अक्षर बिंदु में स्थूल वाणी का संपूर्ण वैचित्र्य अव्यक्त रूप में अभिन्न भाव से रहता है। इसी को पश्यंती वाणी भी कहते हैं।
Darshana : शाक्त दर्शन
अखण्ड ब्रह्माद्वैत
शुद्धाद्वैत मत में अखण्ड और सखण्ड भेद से अद्वैतब्रह्म दो प्रकार का है। केवल ‘ब्रह्म’ इस आकार वाले विशेषण शून्य ज्ञान का विषय अखण्ड ब्रहमाद्वैत है तथा ‘इदं ब्रह्म’ इस प्रकार के इदमर्थ (प्रपञ्च) सहित ज्ञान का विषय ब्रह्म सखण्ड ब्रह्माद्वैत है। विशेषणमुक्त वस्तुमात्र अखण्ड है और विशेषणयुक्त वस्तु सखण्ड है (अ.भा.प. 1194)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
अख्याति
ख्याति = ज्ञान। अख्याति = अज्ञान। अज्ञान ज्ञान का अभाव न होकर वह अपूर्ण ज्ञान होता है जहाँ स्वप्रकाश का सर्वथा नाश नहीं होता है, क्योंकि स्वप्रकाश के सर्वथा नाश हो जाने पर तो अज्ञान का भान होना भी संभव नहीं हो सकता है। अपूर्ण ज्ञान को ही सभी भ्रांतियों का मूल कारण माना गया है। अतः भेद का मूल कारण अपने स्वरूप की अख्याति ही है। (ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी 2, पृ. 113)। परम शिव में संवित रूप में स्थित संपूर्ण विश्व का व्यावहारिक दशाओं में जो स्फुट रूप से आभास होता है वह परमेश्वर के स्वरूप गोपन से ही होता है। इस स्वरूप गोपन को ही अख्याति कहते हैं। (प्रत्यभिज्ञाहृदय , पृ. 51)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अंग
वीर-शैव-दर्शन में अंग शब्द दीक्षा-संपन्न शुद्ध जीव का वाचक है। ‘अं गच्छतीति = अंगम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘अंग’ शब्द बनता है। ‘अं’ का अर्थ है पर शिव और ‘गच्छति’ का अर्थ प्राप्त करना है। यह जीव अनाद्यनंत परमतत्व को समरस भाव से प्राप्त करने का अधिकार रखता है, अतः उसे अंग शब्द से संबोधित किया जाता है- (अनु.सू.4/4)। इतना ही नहीं, परशिव का अंग अथवा अंश होने के कारण भी यह जीव अंग कहलाता है।
यह अंग लिंगतत्व का उपासक है। अतः लिंग और अंग में उपास्य – उपासक का संबंध है। उपास्य लिगंतत्व अपनी लीला से ‘भावलिंग’, ‘प्राणलिंग’ तथा ‘इष्ट-लिंग’ के नाम से प्रसिद्ध होता है। तदनुसार उपासक अंग भी योगांग, भोगांग और त्यागांग के भेद से तीन प्रकार का हो जाता है (अनु.सू. 4/5,6)।
क. योगांग –
परशिव के साथ साक्षात् योग अथवा तादात्म्य प्राप्त करन वाले अंग को ‘योगांग’ कहते हैं (अन.सू.4/6) सुषुप्ति-अवस्था में कारण शरीराभिमानी जीव भी, जिसे अन्य दर्शनों में ‘प्राज्ञ’ कहते हैं, यहाँ पर योगांग शब्द से जाना जाता है (अनु.सू. 4/10)। वस्तुत: ‘शरण’ तथा ‘ऐक्य’ इन दोनों स्थलों के साधकों को ही योगांग कहा जाता है, क्योंकि ‘शरण’ तथा ‘ऐक्य’ अवस्था में जीव को साक्षात् परशिव-स्वरूप का अनुभव होता रहता है (अन.सू.4/12)।
ख. भोगांग –
यहाँ पर ‘भोग’ शब्द शिव-प्रसाद के अर्थ में प्रयुक्त है। अतः अपभोग की सभी वस्तुओं को शिव को समर्पित कर उनका प्रसाद रूप से उपभोग करने वाला अंग भोगांग कहलाता है (अनु. सू. 4/7)। ‘प्रसादी’ एवं ‘प्राणलिंगी’ इन दोनों अवस्थाओं के साधकों को ‘भोगांग’ कहा जाता है, क्योंकि इन दोनों स्थलों के साधक अपनी साधना के बल से इस प्रपंच को शिवस्वरूप देखने के साथ-साथ सभी उपभोग्य वस्तुओं में शिव के प्रसाद की दृष्टि रखते हैं। (अनु. सू. 4/12)।
स्वप्नावस्था में सूक्ष्म शरीराभिमानी जीव को, जिसे अन्य दर्शनों में ‘तेजस’ नाम से जाना जाता है, वीर शैव दर्शन में ‘भोगांग’ कहते हैं। इसी को ‘अंतरात्मा’ भी कहा जाता है (अनु.सू. 4/14/16)।
ग. त्यागांग –
गुरु-कृपा से तथा अपनी साधना के बल से जिस साधक ने संसार की भ्रांति को त्याग दिया है, अर्थात् जिसकी भ्रांति छूट गयी है, उस अंग को त्यागांग कहते हैं (अनु.सू. 4/7)। यह ‘भक्त’ और ‘महेश’ स्थल के साधक की अवस्था है, क्योंकि इन दोनों स्थलों के साधक ‘मैं’ तथा ‘मेरा’ इस सांसारिक भाव से अलग होकर रहते हैं। (अनु. सू. 4/13)।
जाग्रतावस्था में स्थूल शरीर से व्यवहार करने वाला जीव, जिसे दर्शनांतर में ‘विश्व’ नाम से जाना जाता है, यहाँ पर त्यागांग है और इसे ‘जीवात्मा’ भी कहते हैं (अनु.सू 4/15,16)।
Darshana : वीरशैव दर्शन
अंग – स्थल
लिंग-स्थल’ के उपासक जीव को वीरशैव दर्शन में ‘अंग-स्थल’ कहा गया है। ‘लिंग’ और ‘अंग’ ये दोनों ‘स्थल’ तत्व के ही दो रूप है। इन्हें उपास्य और उपासक कहते हैं (अनु.सू. 2/10-13)। यह ‘अंग-स्थल’, ‘भक्त’, ‘महेश्वर’ ‘प्रसादी’ ‘प्राण-लिंगी’, ‘शरण’ और ‘ऐक्य’ के भेद से छः प्रकार का है। इन्हीं को ‘षट्स्थल’ भी कहते हैं। यह षट्स्थल-क्रम इस दर्शन की विशेषता है। ये जीव के शिवत्व प्राप्त करने की क्रमिक अवस्थाएँ हैं। अंग इन षट्स्थलों के द्वारा लिंगस्वरूप बन जाता है। यही इस अंग-स्थल या षट्स्थल का उद्देश्य है। इनमें ‘भक्त’ ‘महेश्वर’ और ‘प्रसादी’ क्रियाप्रधान हैं और ‘प्राणलिंगी’, ‘शरण’ तथा ‘ऐक्य’ ज्ञानप्रधान हैं (अनु.सू.4/43)। इस तरह षट्स्थल-मार्ग ज्ञान-कर्म-समुच्चित माना जाता है।
क. भक्त –
किंकर-भाव से वीर-शैव धर्म में प्रतिपादित ‘अष्टावरण’ पंचाचारों में श्रद्धा रखकर ‘इष्टलिंग’ की आराधना करने वाला दीक्षा-संपन्न शुद्ध जीव ही ‘भक्त’ कहलाता है। यह शरीर आदि में अनात्मत्व का निश्चय करके उनमें ममत्व-शून्य होकर सांसारिक विषयों में विरक्त रहता है और सत्य तथा पवित्र भाव से कोई एक उद्योग करके उससे उपार्जित द्रव्य से यथाशक्ति गुरु, लिंग, जंगम को अन्न आदि से संतृप्त करके अवशिष्ट भाग को प्रसाद रूप में ग्रहण करता है।
यह इस धर्म में प्रतिपादित ‘तप’, ‘कर्म’, ‘जप’, ‘ध्यान’ और ‘ज्ञान’ इन शिव-पंचयज्ञों का आचरण करता रहता है। ‘तप’ का अर्थ है- शरीर-शोषण अर्थात् शिवपूजा निमित्त होने वाला शारीरिक परिश्रम। ‘कर्म’ है इष्टलिंग की पूजा। ‘जप’ का अर्थ है शिवपंचाक्षरी मंत्र, श्रीरुद्र अथवा ॐकार की पुन: पुन: आवृत्ति। ‘ध्यान’ है निरंतर साकार शिव का ही चिंतन। ‘ज्ञान’ का अर्थ शैवागम-प्रतिपादित तत्व विमर्श है। इस तरह भक्त-स्थल में प्रतिपादित ‘शिवपंच-यज्ञ’ आदि का तत्परता से आचरण करने वाला ही ‘भक्त’ कहलाता है। इस साधक को ‘भक्त-स्थल’ भी कहते हैं (सि.शि. 9/21-25, पृष्ठ 1244, 145; अनु.सू 4/33; अ.वी.सा.सं. भाग 2 पृष्ठ 79-80)।
ख. महेश्वर –
यह षटस्थल-साधक की दूसरी भूमिका मानी जाती है। जब ‘भक्त-स्थल’ के साधक की इष्टलिंग आदि में रहने वाली श्रद्धा दृढ़ होकर ‘निष्ठा’ बन जाती है, तब वह भक्त ही ‘महेश्वर’ कहलाता है। यह ‘महेश्वर-स्थल’ के नाम से भी जाना जाता है। इसका चित्त अत्यंत निर्मल हुआ रहता है। अतएव इसमें नित्य और अनित्य वस्तुओं का विवेक एवं ऐहिक तथा पारलौकिक सुखों में निःस्पृहता उत्पन्न होती है (सि.शि. 10/2,3 पृष्ठ 167) साधक की यह अवस्था क्रियाप्रधान है। अतः यह शिव को स्वामी और अपने को सेवक समझता है। यह इष्टलिंग-पूजारूप व्रत का कदापि लोप नहीं करता। इस व्रत में भयानक बाधाओं (सिरच्छेदन, संपत्ति का अपहरण आदि) के प्राप्त होने पर भी उनसे भयग्रस्त होकर यह अपना व्रत नहीं छोड़ता। (सि.शि. 10/1,2 पृष्ठ 172,173)। यह परस्त्री, परधन आदि में निःस्पृह रहता है। यह अविद्या आदि पंच क्लेशों से रहित होने के कारण सदा संतुष्ट रहता है। सभी प्राणियों पर दया करने की भावना इसमें जाग्रत् रहती है। यह अन्य देवताओं की अपेक्षा शिव को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है और कदाचित् शिवापकर्ष का प्रसंग आने पर निवारण में अपने प्राण त्याग देने में भी संकोच नहीं करता। साधक का यह सत्वगुण का उद्रेक है। शिव के प्रति एतादृश निष्ठायुक्त महेश्वर ही ‘वीर – माहेश्वर’ कहलाता है। अतः यह ‘वी – माहेश्वर’ महेश्वर – स्थल का ही उत्कृष्ट साधक है। सि.शि. 10/13-20, पृष्ठछ 170,171; अनु.सू. 4/32; अ.वी.सा.सं. पृष्ठ 118-119)।
ग. प्रसादी –
प्रसाद गुण’ वाला साधक ही ‘प्रसादी’ कहलाता है। मन की प्रसन्नता को ‘प्रसाद’ कहते हैं। य प्रसन्नता शिव के अनुग्रह से ही प्राप्त होती है। इस प्रकार शिवानुग्रह से प्राप्त प्रसन्न मन का साधक ही ‘प्रसादी’ है। ‘मन: प्रसादयोगेन प्रसादीत्येष कथ्यते’ इस आचार्योक्ति के अनुसार सदा प्रसन्नचित्त रहना ही इस साधक का असाधारण लक्षण है। शुद्ध अन्न का सेवन मन की शुद्ऍधि में कारण माना गया है। अन्न तभी शुद्ध हो सकता है, जब शिव को समर्पित किया जाता है। शिवार्पित अन्न आदि भोज्य पदार्थों को ‘शिव निर्माल्य’ कहा जाता है। इसके सेवन से मन निर्मल हो जाता है। मन की निर्मलता ही प्रसन्नता का कारण बनती है। इसलिये यह साधक अवधान – भक्ति से युक्त होकर अपनी उपभोग्य वस्तुओं को शिव को समर्पित करके उस शिव- निर्माल्य का सेवन करता है। इसी प्रकार यह गुरु तथा जंगम को उपभोग्य वस्तुओं को समर्पित करता है और उन दोनों का भी अनुग्रह प्राप्त करता है। इस साधक में क्रिया के साथ भावना का भी प्राचुर्थ रहता है। वह अपनी क्रियाओं को पवित्र भाव से युक्त होकर सदा करता रहता है। शिवार्पण बुद्धि से कर्म करने के कारण यह प्रपंच में रहता हुआ भी उससे उसी प्रकार निर्लिप्त रहता है, जैसे पानी में रहने वाला पद्मपत्र उससे निर्लिप्त रहता है. इस साधक को ‘प्रसादि – स्थल’ भी कहते हैं (सि.शि. 11/2-18 पृष।ठ 193-198; अ.वी.सा.सं.भाग 2 पृष्ठ 179-181; अनु. यू. 4/31)।
घ. प्राणलिंगी –
प्राण – लिंग’ के उपासक को ‘प्राणलिंगी’ कहा जाता है, इसी को ‘प्राण – लिंगी -स्थल’ भी कहते हैं। यह साधक की चतुर्थ भूमिका है। पूर्वोक्त ‘भक्त’, ‘महेश्वर’ और ‘प्रसादी’ साधकों में क्रिय का प्राधान्य था। इस साधक में ज्ञान – योग का प्राधान्य है (सि.शि. 12/2 पृष्ठ)। योग – मार्ग की सूक्ष्म अनुभूति इस स्थल के साधक में होती है।
प्राण तथा अपान वायु के संघर्ष से मूलाधार से जिस ज्योति स्वरूप का उदय होता है, उसी को शिवयोगियों ने ‘प्राण – लिंग’ कहा है। जिस प्रकार सूर्योदय के होने पर तुहिन कण उस सूर्य के प्रकाश में लीन हो जाते हैं, उसी प्रकार इस चिद्रूप ज्योति में प्राणवायु का भी विलय हो जाता है। अतः प्राणशक्ति विशिष्ट इस ज्योति को ‘प्राण – लिंग’ कह गया है (सि. शि. 12/6,7 पृष्ठ 2,3)। यह हृदय – कमल में दीपक के समान स्फुरित होता है। यही अपने चिद्रूप का भान है। इस चिद्रूप के बोध से इस साधक का जीवत्व-भ्रम छूट जाता हे। वस्तुत: इसी स्थल में साधक को स्वस्वरूप का साक्षात्कार होता है। इस साधक में ‘अनुभव – भक्ति’ रहती है, अर्थात् शिव का अनुभव इसी स्थल में होता है। यह बाह् य पूजा आदि क्रियाओं से परांगमुख होकर ‘भ्रमर-कीट-न्याय’ से निरंतर अंतर्लिंगानुसंधान करता रहता हे। इसी को ‘संविल्लिंग – परामर्शी’ कहते हैं। इस ज्ञान – ज्योति से इसकी सभी वासनायें उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं, जैसे अग्नि काष्ठ को भस्म कर देती है. (सि.शि. 12/8-12 पृष्ठ 3-5; अनु.सू. 4/30; अ.वी.सा.सं. भाग 2 पृष्ठ 192-193)।
ड. शरण –
जो शिव को ही अपना शरण अर्थात् अनन्य रक्षक मानता है, उसे ही ‘शरण’ कहते हैं। षट्स्थल – साधना की यह पाँचवी भूमिक है। यह शिव को ‘पति’ और अपने को ‘सती’ मानता है। लोक में जैसे सती और पति अभिन होकर सांसारिक सुख का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार यह साधक भी अपने पति रूप शिव के साथ अभेद – भाव से युक्त होकर अलौकिक आनंद का अनुभव करता है। अतएव इस ‘शरण – स्थल’ को ‘सती – पति – न्याय’ स्थल कहते हैं। यह साधक भी अपनी सब क्रियाओं को शिव के संतोष के लिये ही करता रहता है और शिव के संतोष को ही अपना संतोष समझता है। इनका ज्ञान और क्रिया में समन्वय रहता है, अर्थात् लोगों को जिन उत्तम आचरणों का अपदेस करत है उनका स्वयं भी आचरण करता रहता है। शिवानंद को प्राप्त इस साधक को सांसाकिर वासना उसी प्रकार प्रलोभित नहीं कर सकती जैसे गंगाजल से संतृप्त व्यक्ति को मृगमरीचिका। यह निरंतर ‘शिवोടहं’ भाव में ही लीन रहता है (सि.शि. 13/2-12 पृष्ठ 19-22; अ.वी.सा.सं. भाग 2 पृष्ठ 210-211; अनु.सू. 4/29)।
च. ऐक्य –
शिव के साथ एकता को प्राप्त साधक को – ऐक्य’ कहत हैं। यह साधक की अंतिम भूमिका है। ‘शरण-स्थल’ के साधक में रहने वाली ‘शिवोടहं’ भावना जब अत्यंत दृढ़ हो जाती है, तब वह ‘शरण’ ही शिव के साथ एक होकर ‘ऐक्य’ कहलाता है। यही शिव और जीव की समरस अवस्था कहलाती है। इस अवस्था में साधक का ‘आणव – मल’ संपूर्ण रूप से निवृत्त हो जाता है और यह अपने ही मूल शिव – स्वरूप में ऐसे समरस हो जाता है, जैसे जल में जल, ज्योति में ज्योति और आकाश में आकाश समरस होता है। इसी अवस्था को ‘शिखि – कर्पूर – न्याय’ से भी शास्त्रों में समझाया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि जैसे अग्नि के संपर्क से जीव की पृथक् स्थिति नहीं रह जाती। यही वीरशैवों की मुक्ति है। एतादृश अवस्था को प्राप्त जीवन्मुक्त मनीषी को वीरशैव दर्शन में ‘शिवयोगी’ कहा जाता है (सि.शि.14/1-15 पृष्ठ 31-35; अ.वी.सा. सं. भाग 2 पृष्ठ 240-242; सि.शि. 20/2 पृष्ठ 210; अनु.सू. 5/56; अनु.सू. 4/28)।